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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार श्लोक 24-32

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( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )



 
 
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥२४॥

 
ब्रह्म - आध्यात्मिक; अर्पणम् - अर्पण; ब्रह्म - ब्रह्म; हविः - घृत; ब्रह्म - आध्यात्मिक; अग्नौ - हवन रूपी अग्नि में; ब्रह्मणा - आत्मा द्वारा; हुतम् - अर्पित; ब्रह्म - परमधाम; एव - निश्चय ही; तेन - उसके द्वारा; गन्तव्यम् - पहुँचने योग्य; ब्रह्म - आध्यात्मिक; कर्म - कर्म में; समाधिना - पूर्ण एकाग्रता के द्वारा,
 
भावार्थ :  जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं॥24॥

तात्पर्य : यहाँ इसका वर्णन किया गया है कि किस प्रकार कृष्णभावनाभावित कर्म करते हुए अन्ततोगत्वा आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त होता है । कृष्णभावनामृत विषयक विविध कर्म होते हैं, जिनका वर्णन अगले श्लोकों में किया गया है, किन्तु इस श्लोक में तो केवल कृष्णभावनामृत का सिद्धान्त वर्णित है । भौतिक कल्मष से ग्रस्त बद्धजीव को भौतिक वातावरण में ही कार्य करना पड़ता है, किन्तु फिर भी उसे ऐसे वातावरण से निकलना ही होगा । जिस विधि से वह ऐसे वातावरण से बाहर निकल सकता है, वह कृष्णभावनामृत है । उदाहरण के लिए, यदि कोई रोगी दूध की बनी वस्तुओं के अधिक खाने से पेट की गड़बड़ी से ग्रस्त हो जाता है तो उसे दही दिया जाता है, जो दूध ही से बनी वस्तु है । भौतिकता में ग्रस्त बद्धजीव का उपचार कृष्णभावनामृत के द्वारा ही किया जा सकता है जो यहाँ गीता में दिया हुआ है । यह विधि यज्ञ या विष्णु या कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए किये गये कार्य कहलाती है । भौतिक जगत् के जितने ही अधिक कार्य कृष्णभावनामृत में या केवल विष्णु के लिए किये जाते हैं पूर्ण तल्लीनता से वातावरण उतना ही अधिक आध्यात्मिक बनता रहता है । ब्रह्म शब्द का अर्थ है 'आध्यात्मिक' । भागवान् आध्यात्मिक हैं और उनके दिव्य शरीर की किरणें ब्रह्मज्योति कहलाती हैं-यही उनका आध्यात्मिक तेज है । प्रत्येक वस्तु इसी ब्रह्मज्योति में स्थित रहती है, किन्तु जब यह ज्योति माया या इन्द्रियतृप्ति द्वारा आच्छादित हो जाती है तो यह भौतिक ज्योति कहलाती है । यह भौतिक आवरण कृष्णभावनामृत द्वारा तुरन्त हटाया जा सकता है । अतएव कृष्णभावनामृत के लिए अर्पित हवि, ग्रहणकर्ता, हवा, होता तथा फल-ये सब मिलकर ब्रह्म या परम सत्य हैं । माया द्वारा आच्छादित परमसत्य पदार्थ कहलाता है । जब यही पदार्थ परमसत्य के निमित्त प्रयुक्त होता है, तो इसमें फिर से आध्यात्मिक गुण आ जाता है । कृष्णभावनामृत मोहजनित चेतना को ब्रह्म या परमेश्र्वरोन्मुख करने की विधि है । जब मन कृष्णभावनामृत में पूरी तरह निमग्न रहता है तो उसे समाधि कहते हैं । ऐसी दिव्यचेना में सम्पन्न कोई भी कार्य यज्ञ कहलाता है । आध्यात्मिक चेतना की ऐसी स्थिति में होता, हवन , अग्नि, यज्ञकर्ता तथा अंतिम फल - यह सब परब्रह्म में एकाकार हो जाता है । यही कृष्णभावनामृत की विधि है ।
 



दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥२५॥


दैवम् – देवताओं की पूजा करने में; एव – इस प्रकार; अपरे – अन्य; यज्ञम् – यज्ञ को; योगिनः – योगीजन; पर्युपासते – भलीभाँति पूजा करते हैं; ब्रह्म – परमसत्य का; अग्नौ – अग्नि में; अपरे – अन्य; यज्ञम् – यज्ञ को; यज्ञेन – यज्ञ से; एव – इस प्रकार; उपजुह्वति – अर्पित करते हैं,

भावार्थ :  दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं। (परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करना है।)॥25॥

तात्पर्य : जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होकर अपना कर्म करने में लीन रहता है वह पूर्ण योगी है, किन्तु ऐसे भी मनुष्य हैं जो देवताओं की पूजा करने के लिए यज्ञ करते हैं । इस तरह यज्ञ की अनेक कोटियाँ हैं । विभिन्न यज्ञकर्ताओं द्वारा सम्पन्न यज्ञ की ये कोटियाँ केवल बाह्य वर्गीकरण हैं । वस्तुतः यज्ञ का अर्थ है – भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना और विष्णु को यज्ञ भी कहते हैं । विभिन्न प्रकार के यज्ञों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है । सांसारिक द्रव्यों के लिए यज्ञ (द्रव्ययज्ञ) तथा दिव्य ज्ञान के लिए किये गये यज्ञ (ज्ञानयज्ञ) । जो कृष्णभावनाभावित हैं उनकी सारी भौतिक सम्पदा परमेश्र्वर को प्रसन्न करने के लिए होती है, किन्तु जो किसी क्षणिक भौतिक सुख की कामना करते हैं वे इन्द्र, सूर्य आदि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपनी भौतिक सम्पदा की आहुति देते हैं । किन्तु अन्य लोग, जो निर्विशेषवादी हैं, वे निराकार ब्रह्म में अपने स्वरूप को स्वाहा कर देते हैं । देवतागण ऐसी शक्तिमान् जीवात्माएँ हैं जिन्हें ब्रह्माण्ड को ऊष्मा प्रदान करने, जल देने तथा प्रकाशित करने जैसे भौतिक कार्यों की देखरेख के लिए परमेश्र्वर ने नियुक्त किया है । जो लोग भौतिक लाभ चाहते हैं वे वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार विविध देवताओं की पूजा करते हैं । ऐसे लोग बह्वीश्र्वरवादी कहलाते हैं । किन्तु जो लोग परम सत्य निर्गुण स्वरूप की पूजा करते हैं और देवताओं के स्वरूपों को अनित्य मानते हैं, वे ब्रह्मकी अग्नि में अपने आप की ही आहुति दे देते हैं । ऐसे निर्विशेषवादी परमेश्र्वर की दिव्यप्रकृति को समझने के लिए दार्शनिक चिन्तन में अपना सारा समय लगाते हैं । दुसरे शब्दों में, सकामकर्मी भौतिकसुख के लिए अपनी भौतिक सम्पत्ति का यजन करते हैं, किन्तु निर्विशेषवादी परब्रह्म में लीन होने के लिए अपनी भौतिक उपाधियों का यजन करते हैं । निर्विशेषवादी के लिए यज्ञाग्नि ही परब्रह्म है, जिसमें आत्मस्वरूप का विलय ही आहुति है । किन्तु अर्जुन जैसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए सर्वस्व अर्पित कर देता है । इस तरह उसकी सारी भौतिक सम्पत्ति के साथ-साथ आत्मस्वरूप भी कृष्ण के लिए अर्पित हो जाता है । वह परम योगी है, किन्तु उसका पृथक् स्वरूप नष्ट नहीं होता ।
 



श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥२६॥


श्रोत्र-आदीनि – श्रोत्र आदि; इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; अन्ये – अन्य; संयम – संयम की; अग्निषु – अग्नि में; जुह्वति – अर्पित करते हैं; शब्द-आदीन् – शब्द आदि; विषयान् – इन्द्रियतृप्ति के विषयों को; अन्ये – दूसरे; इन्द्रिय – इन्द्रियों की; अग्निषु – अग्नि में; जुह्वति – यजन करते हैं,

भावार्थ :  अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं॥26॥

तात्पर्य : मानव जीवन के चारों आश्रमों के सदस्य – ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी-पूर्णयोगी बनने के निमित्त हैं । मानव जीवन पशुओं की भाँति इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं बना है, अतएव मानव जीवन के चारों आश्रम इस प्रकार व्यवस्थित हैं कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सके । ब्रह्मचारी या शिष्यगण प्रामाणिक गुरु की देखरेख में इन्द्रियतृप्ति से दूर रहकर मन को वश में करते हैं । वे कृष्णभावनामृत से सम्बन्धित शब्दों को ही सुनते हैं । श्रवण ज्ञान का मूलाधार है, अतः शुद्ध ब्रह्मचारी सदैव हरेर्नामानुकीर्तनम् अर्थात् भगवान् के यश के कीर्तन तथा श्रवण में ही लगा रहता है । वह सांसारिक शब्द-ध्वनियों से दूर रहता है और उसकी श्रवणेन्द्रिय हरे कृष्ण हरे कृष्ण की आध्यात्मिक ध्वनि को सुनने में ही लगी रहती है । इसी प्रकार से गृहस्थ भी, जिन्हें इन्द्रियतृप्ति की सीमित छूट है, बड़े ही संयम से इन कार्यों को पुरा करते हैं । यौन जीवन, मादकद्रव्य सेवन तथा मांसाहार मानव समाज की सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं, किन्तु संयमित गृहस्थ कभी भी यौन जीवन तथा अन्य इन्द्रियतृप्ति के कार्यों में अनियन्त्रित रूप से प्रवृत्त नहीं होता । इसी उद्देश्य से प्रत्येक सभ्य समाज में धर्म-विवाह का प्रचलन है । यः संयमित अनासक्त यौन जीवन भी एक प्रकार का यज्ञ है, क्योंकि संयमित गृहस्थ उच्चतर दिव्य जीवन के लिए अपनी इन्द्रियतृप्ति की प्रवृत्ति की आहुति कर देता है ।
 



सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥२७॥


सर्वाणि – सारी; इन्द्रिय – इन्द्रियों के; कर्माणि – कर्म; प्राण-कर्माणि – प्राणवायु के कार्यों को; च – भी; अपरे – अन्य; आत्म-संयम – मनोनिग्रह को; योग – संयोजन विधि; अग्नौ – अग्नि में; जुह्वति – अर्पित करते हैं, ज्ञान-दीपिते – आत्म-साक्षात्कार की लालसा के कारण

भावार्थ :  दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं (सच्चिदानंदघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी न चिन्तन करना ही उन सबका हवन करना है।)॥27॥

तात्पर्य : यहाँ पर पतञ्जलि द्वारा सूत्रबद्ध योगपद्धति का निर्देश है । पतंजलि कृत योगसूत्र में आत्मा को प्रत्यगात्मा तथा परागात्मा कहा गया है । जब तक जीवात्मा इन्द्रियभोग में आसक्त रहता है तब तक वह परागात्मा कहलाता है और ज्योंही वह इन्द्रियभोग से विरत हो जाता है तो प्रत्यगात्मा कहलाने लगता है । जीवात्मा के शरीर में दस प्रकार के वार्यु कार्यशील रहते हैं और इसे श्र्वासप्रक्रिया (प्राणायाम) द्वारा जाना जाता है । पतंजलि की योगपद्धति बताती है कि किस प्रकार शरीर के वायु के कार्यों को तकनीकी उपाय से नियन्त्रित किया जाए जिससे अन्ततः वायु के सभी आन्तरिक कार्य आत्मा को भौतिक आसक्ति से शुद्ध करने में सहायक बन जाएँ । इस योगपद्धति के अनुसार प्रत्यगात्मा ही चरम उद्देश्य है । यह प्रत्यगात्मा पदार्थ की क्रियाओं से प्राप्त की जाती है । इन्द्रियाँ इन्द्रियविषयों से प्रतिक्रिया करती हैं, यथा कान सुनने के लिए, आँख देखने के लिए, नाक सूँघने के लिए, जीभ स्वाद के लिए तथा हाथ स्पर्श के लिए हैं, और ये सब इन्द्रियाँ मिलकर आत्मा से बाहर के कार्यों में लगी रहती हैं । ये ही कार्य प्राणवायु के व्यापार (क्रियाएँ) हैं । अपान वायु नीचे की ओर जाती है, व्यान वायु से संकोच तथा प्रसार होता है, समान वायु से संतुलन बना रहता है और उड़ान वायु ऊपर की ओर जाती है और जब मनुष्य प्रबुद्ध हो जाता है तो वह इन सभी वायुओं को आत्मा-साक्षात्कार की खोज में लगाता है ।
 



द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥२८॥


द्रव्य-यज्ञाः – अपनी सम्पत्ति का यज्ञ; तपः-यज्ञाः – तापों का यज्ञ; योग-यज्ञाः – अष्टांग योग में यज्ञ; तथा – इस प्रकार; अपरे – अन्य; स्वाध्याय – वेदाध्ययन रूपी यज्ञ; ज्ञान-यज्ञाः – दिव्य ज्ञान की प्रगति हेतु यज्ञ; च – भी; यतयः – प्रबुद्ध पुरुष; संशित-व्रताः – दृढ व्रतधारी,

भावार्थ :  कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं॥28॥

तात्पर्य : इन यज्ञों के कई वर्ग किये जा सकते हैं । बहुत से लोग विविध प्रकार के दान-पुण्य द्वारा अपनी सम्पत्ति का यजन करते हैं । भारत में धनाढ्य व्यापारी या राजवंशी अनेक प्रकार की धर्मार्थ संस्थाएँ खोल देते हैं – यथा धर्मशाला, अन्न क्षेत्र, अतिथिशाला, अनाथालय तथा विद्यापीठ । अन्य देशों में भी अनेक अस्पताल, बूढों के लिए आश्रम तथा गरीबों को भोजन, शिक्षा तथा चिकित्सा की सुविधाएँ प्रदान करने के दातव्य संस्थान हैं । ये सब दानकर्म द्रव्यमय यज्ञ हैं । अन्य लोग जीवन में उन्नति करने अथवा उच्च्लोकों में जाने के लिए चान्द्रायण तथा चातुर्मास्य जैसे विविध तप करते हैं । इन विधियों के अन्तर्गत कतिपय कठोर नियमों के अधीन कठिन व्रत करने होते हैं । उदाहरणार्थ, चातुर्मास्य व्रत रखने वाला वर्ष के चार मासों (जुलाई से अक्टूबर तक) बाल नहीं कटाता, न ही कतिपय खाद्य वस्तुएँ खाता है और न दिन में दो बार खाता है, न निवास-स्थान छोड़कर कहीं जाता है । जीवन के सुखों का ऐसा परित्याग तपोमय यज्ञ कहलाता है । कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अनेक योगपद्धतियों का अनुसरण करते हैं तथा पतंजलि पद्धति (ब्रह्म में तदाकार होने के लिए) अथवा हठयोग या अष्टांगयोग (विशेष सिद्धियों के लिए) । कुछ लोग समस्त तीर्थस्थानों की यात्रा करते हैं । ये सारे अनुष्ठान योग-यज्ञ कहलाते हैं, जो भौतिक जगत् में किसी सिद्धि विशेष के लिए किये जाते हैं । कुछ लोग ऐसे हैं जो विभिन्न वैदिक साहित्य तथा उपनिषद् तथा वेदान्तसूत्र या सांख्यादर्शन के अध्ययन में अपना ध्यान लगाते हैं । इसे स्वाध्याय यज्ञ कहा जाता है । ये सारे योगी विभिन्न प्रकार के यज्ञों में लगे रहते हैं और उच्चजीवन की तलाश में रहते हैं । किन्तु कृष्णभावनामृत इनसे पृथक् है क्योंकि यह परमेश्र्वर की प्रत्यक्ष सेवा है । इसे उपर्युक्त किसी भी यज्ञ से प्राप्त नहीं किया जा सकता, अपितु भगवान् तथा उनके प्रामाणिक भक्तों की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है । फलतः कृष्णभावनामृत दिव्य है ।
 



अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥२९॥

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥३०॥


अपाने – निम्नगामी वायु में; जुह्वति – अर्पित करते हैं; प्राणम् – प्राण को; प्राणे – प्राण में; अपानम् – निम्नगामी वायु को; तथा – ऐसे ही; अपरे – अन्य; प्राण – प्राण का; अपान – निम्नगामी वायु; गती – गति को; रुद्ध्वा – रोककर; प्राण-आयाम – श्र्वास रोक कर समाधि में; परायणाः – प्रवृत्त; अपरे – अन्य; नियत – संयमित, अल्प; आहाराः – खाकर; प्राणान् – प्राणों को; प्राणेषु – प्राणों में; जुह्वति – हवन करते हैं, अर्पित करते हैं,
सर्वे – सभी; अपि – ऊपर से भिन्न होकर भी; एते – ये; यज्ञ-विदः – यज्ञ करने के प्रयोजन से परिचित; यज्ञ-क्षपित – यज्ञ करने के कारण शुद्ध हुआ; कल्मषाः – पापकर्मों से; यज्ञ-शिष्ट – ऐसे यज्ञ करने के फल का; अमृत-भुजः – ऐसा अमृत चखने वाले; यान्ति – जाते हैं; ब्रह्म – परम ब्रह्म; सनातनम् – नित्य आकाश को,

भावार्थ :  दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार (गीता अध्याय 6 श्लोक 17 में देखना चाहिए।) करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं ॥29-30॥

तात्पर्य : श्र्वास को रोकने की योगविधि प्राणायाम कहलाती है । प्रारम्भ में हठयोग के विविध आसनों की सहायता से इसका अभ्यास किया जाता है । ये सारी विधियाँ इन्द्रियों को वश में करने तथा आत्म-साक्षात्कार की प्रगति के लिए संस्तुत की जाती हैं । इस विधि में शरीर के भीतर वायु को रोका जाता है जिससे वायु की दिशा उलट सके । अपान वायु निम्नगामी (अधोमुखी) है और प्राणवायु उर्ध्वगामी है । प्राणायाम में योगी विपरीत दिशा में श्र्वास लेने का तब तक अभ्यास करता है जब तक दोनों वायु उदासीन होकर पूरक अर्थात् सम नहीं हो जातीं । जब अपान वायु को प्राणवायु में अर्पित कर दिया जाता है तो इसे रेचक कहते हैं । जब प्राण तथा अपां वायुओं को पूर्णतया रोक दिया जाया है तो इसे कुम्भक योग कहते हैं । कुम्भक योगाभ्यास द्वारा मनुष्य आत्म-सिद्धि के लिए जीवन अवधि बढ़ा सकता है । बुद्धिमान योगी एक ही जीवनकाल में सिद्धि प्राप्त करने का इच्छुक रहता है, वह दूसरे जीवन की प्रतीक्षा नहीं करता । कुम्भक योग के अभ्यास से योगी जीवन अवधि को अनेक वर्षों के लिए बढ़ा सकता है । किन्तु भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति में स्थित रहने के कारण कृष्णभावनाभावित मनुष्य स्वतः इन्द्रियों का नियंता (जितेन्द्रिय) बन जाता है । उसकी इन्द्रियाँ कृष्ण की सेवा में तत्पर रहने के कारण अन्य किसी कार्य में प्रवृत्त होने का अवसर ही नहीं पातीं । फलतः जीवन के अन्त में उसे स्वतः भगवान् कृष्ण के दिव्य पद पर स्थानान्तरित कर दिया जाता है, अतः वह दीर्घजीवी बनने का प्रयत्न नहीं करता । वह तुरंत मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है, जैसा कि भगवद्गीता में (१४.२६) कहा गया है –
 
मां च योSव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।
 
“जो व्यक्ति भगवान् की निश्छल भक्ति में प्रवृत्त होता है वह प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और तुरन्त आध्यात्मिक पद को प्राप्त होता है ।”
 
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति दिव्य अवस्था से प्रारम्भ करता है और निरन्तर उसी चेतना में रहता है । अतः उसका पतन नहीं होता और अन्ततः वह भगवद्धाम को जाता है । कृष्ण प्रसादम् को खाते रहने में स्वतः कम खाने की आदत पड़ जताई है । इन्द्रियनिग्रह के मामले में कम भोजन करना (अल्पाहार) अत्यन्त लाभप्रद होता है और इन्द्रियनिग्रह के बिना भाव-बन्धन से निकल पाना सम्भव नहीं है॥29॥
 
तात्पर्य : विभिन्न प्रकार के यज्ञों (यथा द्रव्ययज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ तथा योगयज्ञ) की उपर्युक्त व्याख्या से यह देखा जाता है कि इन सबका एक ही उद्देश्य है और वह हैं इन्द्रियों का निग्रह । इन्द्रियतृप्ति ही भौतिक अस्तित्व का मूल कारण है, अतः जब तक इन्द्रियतृप्ति से भिन्न धरातल पर स्थित न हुआ जाय तब तक सच्चिदानन्द के नित्य धरातल तक उठ पाना सम्भव नहीं है । यह धरातल नित्य आकाश या ब्रह्म आकाश में है । उपर्युक्त सारे यज्ञों से संसार के पापकर्मों से विमल हुआ जा सकता है । जीवन में इस प्रगति से मनुष्य न केवल सुखी और ऐश्र्वर्यवान बनता है, अपितु अन्त में वह निराकार ब्रह्म के साथ तादात्म्य के द्वारा श्रीभगवान् कृष्ण की संगति प्राप्त करके भगवान् के शाश्र्वत धाम को प्राप्त करता है॥30॥
 



यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥३१॥


न – कभी नहीं; अयम् – यह; लोकः – लोक; अस्ति – है; अयज्ञस्य – यज्ञ न करने वाले का; कुतः – कहाँ है; अन्यः – अन्य; कुरु-सत्-तम – हे कुरुश्रेष्ठ,

भावार्थ :  हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?॥31॥

तात्पर्य : मनुष्य इस लोक में चाहे जिस रूप में रहे वह अपने स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है । दुसरे शब्दों में, भौतिक जगत् में हमारा अस्तित्व हमारे पापपूर्ण जीवन के बहुगुणित फलों के कारण है । अज्ञान ही पापपूर्ण जीवन का कारण है और पापपूर्ण जीवन ही इस भौतिक जगत् में अस्तित्व का कारण है । मनुष्य जीवन ही वह द्वार है जिससे होकर इस बन्धन से बाहर निकला जा सकता है । अतः वेद हमें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का मार्ग दिखलाकर बहार निकालने का अवसर प्रदान करते हैं । धर्म या ऊपर संस्तुत अनेक प्रकार के यज्ञ हमारी आर्थिक समस्याओं को स्वतः हल कर देते हैं । जनसंख्या में वृद्धि होने पर भी यज्ञ सम्पन्न करने से हमें प्रचुर भोजन, प्रचुर दूध इत्यादि मिलता रहता है । जब शरीर की आवश्यकता पूर्ण होती रहती है, तो इन्द्रियों को तुष्ट करने की बारी आती है । अतः वेदों में नियमित इन्द्रियतृप्ति के लिए पवित्र विवाह का विधान है । इस प्रकार मनुष्य भौतिक बन्धन से क्रमशः छूटकर उच्चपद की ओर अग्रसर होता है और मुक्त जीवन की पूर्णता परमेश्र्वर का सान्निध्य प्राप्त करने में है । यह पूर्णता यज्ञ सम्पन्न करके प्राप्त की जाती है, जैसा कि पहले बताया जा चुका है । फिर भी यदि कोई व्यक्ति वेदों के अनुसार यज्ञ करने के लिए तत्पर नहीं होता, तो वह शरीर में सुखी जीवन की कैसे आशा कर सकता है? फिर दुसरे लोक में दुसरे शरीर में सुखी जीवन की आशा तो व्यर्थ ही है । विभिन्न स्वर्गों में भिन्न-भिन्न प्रकार की जीवन-सुविधाएँ हैं और जो लोग यज्ञ करने में लगे हैं उनके लिए तो सर्वत्र परम सुख मिलता है । किन्तु सर्वश्रेष्ठ सुख वह है जिसे मनुष्य कृष्णभावनामृत के अभ्यास द्वारा वैकुण्ठ जाकर प्राप्त करता है । अतः कृष्णभावनाभावित जीवन ही इस भौतिक जगत् की समस्त समस्याओं का एकमात्र हल है ।
 



एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥३२॥


एवम् – इस प्रकार; बहु-विधाः – विविध प्रकार के; यज्ञाः – यज्ञ; वितताः – फैले हुए हैं; ब्रह्मणः – वेदों के; मुखे – मुख में; कर्म-जान् – कर्म से उत्पन्न; विद्धि – जानो; तान् – उन; सर्वान् – सबको; एवम् – इस तरह; ज्ञात्वा – जानकर; विमोक्ष्यसे – मुक्त हो जाओगे,

भावार्थ :  इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा॥32॥

तात्पर्य : जैसा कि पहले बताया जा चुका है वेदों में कर्ताभेद के अनुसार विभिन्न प्रकार के यज्ञों का उल्लेख है । चूँकि लोग देहात्मबुद्धि में लीन हैं, अतः इन यज्ञों की व्यवस्था इस प्रकार की गई है कि मनुष्य उन्हें अपने शरीर, मन अथवा बुद्धि के अनुसार सम्पन्न कर सके । किन्तु देह से मुक्त होने के लिए ही इन सबका विधान है । इसी की पुष्टि यहाँ पर भगवान् ने अपने श्रीमुख से की है ।


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