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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँच श्लोक 01-06

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( सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय )

अर्जुन उवाच

सन्न्यासं कर्म णां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्र्चितम् ॥१॥


अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; संन्यासम् – संन्यास; कर्मणाम् – सम्पूर्ण कर्मों के; कृष्ण – हे कृष्ण; पुनः – फिर; योगम् – भक्ति; शंससि – प्रशंसा करते हो; यत् – जो; श्रेयः – अधिक लाभप्रद है; एतयोः – इन दोनों में से; एकम् – एक; तत् – वह; मे – मेरे लिए; ब्रूहि – कहिये; सु-निश्चितम् – निश्चित रूप से ।

भावार्थ : अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं । क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है? ॥1॥

तात्पर्य : भगवद्गीता के इस पंचम अध्याय में भगवान् बताते हैं कि भक्तिपूर्वक किया गया कर्म शुष्क चिन्तन से श्रेष्ठ है । भक्ति-पथ अधिक सुगम है, क्योंकि दिव्यस्वरूपा भक्ति मनुष्य को कर्मबन्धन से मुक्त करती है । द्वितीय अध्याय में आत्मा तथा उसके शरीर बन्धन का सामान्य ज्ञान बतलाया गया है । उसी में बुद्धियोग अर्थात् भक्ति द्वारा इस भौतिक बन्धन से निकलने का भी वर्णन हुआ है । तृतीय अध्याय में यह बताया गया है कि ज्ञानी को कोई कार्य नहीं करने पड़ते । चतुर्थ अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को बताया है कि सारे यज्ञों का पर्यवसान ज्ञान में होता है, किन्तु चतुर्थ अध्याय के अन्त में भगवान् ने अर्जुन को सलाह दी कि वह पूर्णज्ञान से युक्त होकर, उठ करके युद्ध करे । अतः इस प्रकार एक ही साथ भक्तिमय कर्म तथा ज्ञानयुक्त-अकर्म की महत्ता पर बल देते हुए कृष्ण ने अर्जुन के संकल्प को भ्रमित कर दिया है । अर्जुन यह समझता है कि ज्ञानमय संन्यास का अर्थ है – इन्द्रियकार्यों के रूप में समस्त प्रकार के कार्यकलापों का परित्याग । किन्तु यदि भक्तियोग में कोई कर्म करता है तो फिर कर्म का किस तरह त्याग हुआ ? दूसरे शब्दों में, वह यह सोचता है कि ज्ञानमाय संन्यास को सभी प्रकार के कार्यों से मुक्त होना चाहिए क्योंकि उसे कर्म तथा ज्ञान असंगत से लगते हैं । ऐसा लगता है कि वह नहीं समझ पाया कि ज्ञान के साथ किया गया कर्म बन्धनकारी न होने के कारण अकर्म के ही तुल्य है । अतएव वह पूछता है कि वह सब प्रकार से कर्म त्याग दे या पूर्णज्ञान से युक्त होकर कर्म करे ?





श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्र्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते
॥२॥

श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; संन्यास – कर्म का परित्याग; कर्मयोगः – निष्ठायुक्त कर्म; च – भी; निःश्रेयस-करो – मुक्तिपथ को ले जाने वाले; उभौ – दोनों; तयोः – दोनों में से; तु – लेकिन; कर्म-संन्यासात् – सकामकर्मों के त्याग से; कर्म-योगः – निष्ठायुक्त कर्म; विशिष्यते – श्रेष्ठ है ।

भावार्थ : श्रीभगवान् ने उत्तर दिया – मुक्ति में लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं । किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है॥2॥

तात्पर्य : सकाम कर्म (इन्द्रियतृप्ति में लगाना) ही भवबन्धन का कारण है । जब तक मनुष्य शारीरिक सुख का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता रहता है तब तक वह विभिन्न प्रकार के शरीरों में देहान्तरण करते हुए भवबन्धन को बनाये रखता है । इसकी पुष्टि भागवत (५.५.४-६) में इस प्रकार हुई है-

नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति ।
न साधु मन्ये यत आत्मनोSयमसन्नपि क्लेशद आस देहः ।।
पराभवस्तावदबोधजातो यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम् ।
यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ।।
एवं मनः कर्मवशं प्रयुंक्ते अविद्ययात्मन्युपधीयमाने ।
प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे न मुच्यते देह योगेन तावत् ।।

“लोग इन्द्रियतृप्ति के पीछे मत्त हैं । वे यह नहीं जानते कि उनका क्लेशों से युक्त यह शरीर उनके विगत सकाम-कर्मों का फल है । यद्यपि यह शरीर नाशवान है, किन्तु यह नाना प्रकार के कष्ट देता रहता है । अतः इन्द्रिय तृप्ति के लिए कर्म करना श्रेयस्कर नहीं है । जब तक मनुष्य अपने असली स्वरूप के विषय में जिज्ञासा नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ रहता है । और जब तक वह अपने स्वरूप को नहीं जान लेता तब तक उसे इन्द्रिय तृप्ति के लिए सकाम कर्म करना पड़ता है, और जब तक वह इन्द्रिय तृप्ति की इस चेतना में फँसा रहता है तब तक उसका देहान्तरण होता रहता है । भले ही उसका मन सकाम कर्मों में व्यस्त रहे और अज्ञान द्वारा प्रभावित हो, किन्तु उसे वासुदेव की भक्ति के प्रति प्रेम उत्पन्न करना चाहिए । केवल तभी वह भव बन्धन से छूटने का अवसर प्राप्त कर सकता है ।”

अतः यह ज्ञान ही (कि वह आत्मा है शरीर नहीं) मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं । जीवात्मा के स्तर पर मनुष्य को कर्म करना होगा अन्यथा भवबन्धन से उबरने का कोई अन्य उपाय नहीं है । किन्तु कृष्णभावनाभावित होकर कर्म करना सकाम कर्म नहीं है । पूर्णज्ञान से युक्त होकर किये गये कर्म वास्तविक ज्ञान को बढ़ाने वाले हैं । बिना कृष्णभावनामृत के केवल कर्मों के परित्याग से बद्धजीव का हृदय शुद्ध नहीं होता । जब तक हृदय शुद्ध नहीं होता तब तक सकाम कर्म करना पड़ेगा । परन्तु कृष्णभावनाभावित कर्म कर्ता को स्वतः सकाम कर्म के फल से मुक्त बनाता है, जिसके कारण उसके उसे भौतिक स्तर पर उतरना नहीं पड़ता । अतः कृष्णभावनाभावित कर्म संन्यास से सदा श्रेष्ठ होता है, क्योंकि संन्यास में नीचे गिरने की सम्भावना बनी रहती है । कृष्णभावनामृत में (१.२.२५८) पुष्टि की है –

प्रापञ्चिकतया बुद्धया हरि समबन्धिवस्तुनः ।
मुमुक्षुभिः परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते ।।

“जब मुक्तिकामी व्यक्ति श्री भगवान् से सम्बन्धित वस्तुओं को भौतिक समझ कर उनका संन्यास अपूर्ण कहलाता है ।” संन्यास तभी पूर्ण माना जाता है जब यह ज्ञात हो की संसार की प्रत्येक वस्तु भगवान् की है और कोई किसी भी वस्तु का स्वामित्व ग्रहण नहीं कर सकता । वस्तुतः मनुष्य को यह समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि उसका अपना कुछ भी नहीं है । तो फिर संन्यास का प्रश्न ही कहाँ उठता है? तो व्यक्ति यह समझता है कि सारी सम्पत्ति कृष्ण की है, वह नित्य संन्यासी है । प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है, अतः उसका उपयोग कृष्ण के लिए किया जाना चाहिए । कृष्णभावनाभावित होकर इस प्रकार कार्य करना मायावादी संन्यासी के कृत्रिम वैराग्य से कहीं उत्तम है ।




ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते
॥३॥

ज्ञेयः – जानना चाहिए; सः – वह; नित्य - सदैव; संन्यासी – संन्यासी; यः – जो; न – कभी नहीं; द्वेष्टि – घृणा करता है; न – न तो; काङ्क्षति – इच्छा करता है; निर्द्वन्द्वः – समस्त द्वैतताओं से मुक्त; हि – निश्चय ही; महाबाहो – हे बलिष्ट भुजाओं वाले; सुखम् – सुखपूर्वक; बन्धात् – बन्धन से; प्रमुच्यते – पूर्णतया मुक्त हो जाता है ।

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है॥3॥

तात्पर्य : पूर्णतया कृष्णभावनाभावित पुरुष नित्य संन्यासी है क्योंकि वह अपने कर्मफल से न तो घृणा करता है, न ही उसकी आकांशा करता है । ऐसा संन्यासी, भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति के परायण होकर पूर्णज्ञानी होता है क्योंकि वह कृष्ण के साथ अपनी स्वाभाविक स्थिति को जानता है । वह भलीभाँति जानता रहता है कि कृष्ण पूर्ण (अंशी) है और वह स्वयं अंशमात्र है । ऐसा ज्ञान पूर्ण होता है क्योंकि यह गुणात्मक तथा सकारात्मक रूप से सही है । कृष्ण-तादात्मय की भावना भ्रान्त है क्योंकि अंश अंशी के तुल्य नहीं हो सकता । यह ज्ञान कि एकता गुणों की है न कि गुणों की मात्रा की, सही दिव्यज्ञान है, जिससे मनुष्य अपने आप में पूर्ण बनता है, जिसे न तो किसी वस्तु की आकांशा रहती है न किसी का शोक । उसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं रहता क्योंकि वह जो कुछ भी करता है कृष्ण के लिए करता है । इस प्रकार छल-कपट से रहित होकर वह इस भौतिक जगत् से भी मुक्त हो जाता है ।



सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्
॥४॥

सांख्य – भौतिक जगत् का विश्लेषात्मक अध्ययन; योगौ – भक्तिपूर्ण कर्म, कर्मयोग; पृथक् – भिन्न; बालाः – अल्पज्ञ; प्रवदन्ति – कहते हैं; न – कभी नहीं; पण्डिताः – विद्वान जन; एकम् – एक में; अपि – भी; आस्थितः – स्थित; सम्यक् – पूर्णतया; उभयोः – दोनों को; विन्दते – भोग करता है; फलम् – फल ।

भावार्थ :  उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्‌-पृथक् फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक्‌ प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है॥4॥

तात्पर्य : भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा को प्राप्त करना है । भौतिक जगत् की आत्मा विष्णु या परमात्मा हैं । भगवान् की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है । एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है । सांख्यदर्शन का वास्तविक छात्र जगत् के मूल अर्थात् विष्णु को ढूंढता है और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है । अतः मूलतः इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है । जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं हैं, किन्तु जो विद्वान है वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है ।




यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति
॥५॥

यत् – जो; सांख्यैः - सांख्य दर्शन के द्वारा; प्राप्यते – प्राप्त किया जाता है; स्थानम् – स्थान; तत् – वही; योगैः – भक्ति द्वारा; अपि – भी; गम्यते – प्राप्त कर सकता है; एकम् – एक; सांख्यम् – विश्लेषात्मक अध्ययन को; च – तथा; योगम् – भक्तिमय कर्म को; च – तथा; यः – जो; पश्यति – देखता है; सः – वह; पश्यति – वास्तव में देखता है ।

भावार्थ :  ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है॥5॥

तात्पर्य : दार्शनिक शोध (सांख्य) का वास्तविक उद्देश्य जीवन के चरमलक्ष्य की खोज है । चूँकि जीवन का चरमलक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है, अतः इन दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले परिणामों में कोई अन्तर नहीं है । सांख्य दार्शनिक शोध के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि जिव भौतिक जगत् का नहीं अपितु पूर्ण परमात्मा का अंश है । फलतः जीवात्मा का भौतिक जगत् से कोई सराकार नहीं होता, उसके सारे कार्य परमेश्र्वर से सम्बद्ध होने चाहिए । जब वह कृष्णभावनामृतवश कार्य करता है तभी वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में होता है । सांख्य विधि में मनुष्य को पदार्थ से विरक्त होना पड़ता है और भक्तियोग में उसे कृष्णभावनाभावित कर्म में आसक्त होना होता है । वस्तुतः दोनों ही विधियाँ एक हैं, यद्यपि ऊपर से एक विधि में विरक्ति दीखती है और दुसरे में आसक्ति है । जो पदार्थ से विरक्ति और कृष्ण में आसक्ति को एक ही तरह देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है ।




संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥६॥


संन्यासः – संन्यास आश्रम; तु – लेकिन; महाबाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; दुःखम् – दुख; आप्तुम् – से प्रभावित; अयोगतः – भक्ति के बिना; योग-युक्तः – भक्ति में लगा हुआ; मुनिः – चिन्तक; ब्रह्म – परमेश्र्वर को; न चिरेण – शीघ्र ही; अधिगच्छति – प्राप्त करता है ।


भावार्थ :  परन्तु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात्‌ मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है॥6॥

अर्थात  : भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता । परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्र्वर को प्राप्त कर लेता है ।

तात्पर्य : संन्यासी दो प्रकार के होते हैं । मायावादी संन्यासी सांख्यदर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं तथा वैष्णव संन्यासी वेदान्त सूत्रों के यथार्थ भाष्य भागवत-दर्शन के अध्ययन में लगे रहते हैं । मायावादी संन्यासी भी वेदान्त सूत्रों का अध्ययन करते हैं, किन्तु वे शंकराचार्य द्वारा प्रणीत शारीरिक भाष्य का उपयोग करता हैं ।भागवत सम्प्रदाय के छात्र पांचरा त्रिकी विधि से भगवान् की भक्ति करने में लगे रहते हैं । अतः वैष्णव संन्यासियों को भगवान् की दिव्यसेवा के लिए अनेक प्रकार के कार्य करने होते हैं । उन्हें भौतिक कार्यों से सरोकार नहीं रहता, किन्तु तो भी वे भगवान् की भक्ति में नाना प्रकार के कार्य करते हैं । किन्तु मायावादी संन्यासी, जो सांख्य तथा वेदान्त के अध्ययन एवं चिन्तन में लगे रहते हैं, वे भगवान् की दिव्य भक्ति का आनन्द नहीं उठा पाते । चूँकि उनका अध्ययन अत्यन्त जटिल होता है, अतः वे कभी-कभी ब्रह्मचिन्तन से ऊब कर समुचित बोध के बिना भागवत की शरण ग्रहण करते हैं । फलस्वरूप श्रीमद्भागवत का भी अध्ययन उनके लिए कष्टकर होता है । मायावादी संन्यासियों का शुष्क चिन्तन तथा कृत्रिम साधनों से निर्विशेष विवेचना उनके लिए व्यर्थ होती है । भक्ति में लगे हुए वैष्णव संन्यासी अपने दिव्य कर्मों को करते हुए प्रसन्न रहते हैं और यह भी निश्चित रहता है कि वे भगवद्धाम को प्राप्त होंगे ! मायावादी संन्यासी कभी-कभी आत्म-साक्षात्कार के पथ से निचे गिर जाते हैं और फिर से समाजसेवा, परोपकार जैसे भौतिक कर्म में प्रवृत्त होते हैं । अतः निष्कर्ष यह निकला कि कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगे रहने वाले लोग ब्रह्म-अब्रहम विषयक साधारण चिन्तन में लगे संन्यासियों से श्रेष्ठ हैं, यद्यपि वे भी अनेक जन्मों के बाद कृष्णभावनाभावित हो जाते हैं ।

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