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पशुहिंसक दयानंद- जिहादी दयानंद | Pashuhinsak Jihadi Dayanand

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॥जिहादी दयानंद॥


 

दयानंद यजुर्वेदभाष्य, अध्याय १३ मंत्र ४८, ४९,

इमं मा हिँ सीर् एकशफं पशुं कनिक्रदं वाजिनं वाजिनेषु। गौरम् आरण्यम् अनु ते दिशामि तेन चिन्वानस् तन्वो नि षीद। गौरं ते शुग् ऋच्छतु यं द्विष्मस् तं ते शुग् ऋच्छतु॥ ~यजुर्वेद {१३/४८}

इम्ँ साहस्र्ँ शतधारम् उत्सं व्यच्यमान्ँ सरिरस्य मध्ये। घृतं दुहानाम् अदितिं जनायाग्ने मा हि्ँ सीः परमे व्योमन्। गवयम् आरण्यम् अनु ते दिशामि तेन चिन्वानस् तन्वो नि षीद। गवयं ते शुग् ऋच्छतु यं द्विष्मस् तं ते शुग् ऋच्छतु॥
~यजुर्वेद {१३/४९}

दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका यह अर्थ लिखते हैं कि--

“मनुष्यों को उचित है कि जिनके मारने से जगत् की हानि और न मारने से सबका उपकार होता है, उनका सदैव पालन पोषण करें, और जो पशु तुम्हारे लिए लाभकारी न हों उनको मारें”॥४८॥

“हे (अग्ने) दया को प्राप्त हुए परोपकार राजन्, (ते) तेरे राज्य में, (आरण्यम्)- वन में रहने वाली, (गवयम्)- गौ जाति की नीलगाय से खेती की हानि होती है इस कारण, (तेन)- उसके मारने को, (अनुदिशामि)- उपदेश करता हूँ”

इसके भावार्थ में स्वामी जी लिखते हैं कि-- और गौ जाति से सम्बन्ध रखने वाली, गौ के समान दिखने वाली नीलगाय आदि जो जंगल में रहती है, उससे खेती की हानि होती है इसलिए वह मारने योग्य है,

समीक्षक-- धन्य है ऐसा भाष्य करने वाला मंद बुद्धि दयानंद और धन्य है इन भाष्यों को मानने वाले अक्ल से पैदल समाजी, यह स्वामी जी को क्या सुझी की  धर्म कर्म छोड़ हिंसा का मार्ग पकड़ लिया, यह शिक्षा वेद में देखने को तो नहीं मिलती, यह तो वेद के नाम पर आपने अपने शिष्यों को खुली छूट दे दी, कि नीलगाय आदि जो पशु तुम्हारे लिए लाभकारी नहीं उन्हें मारें, शोक हे! ऐसी बुद्धि पर, देखिये इसका यह अर्थ नहीं है जैसा तुमने लिखा है यह वेद श्रुति प्रार्थना के अर्थ है इस श्रुति में यह प्रार्थना है कि--

“हे अग्ने! यह गौ श्रेष्ठ स्थान में रहने वाली सहस्रों उपकार करने वाली, दुग्धादि की सैकड़ों धारा वाली, लोकों में विविध व्यवहार को प्राप्त और मनुष्यों का हित करने को घृत, दुग्ध को देने वाली है, अदिति रूपा यह गौ आपके इस स्वरूप को देख पीडित न हो इसके विपरीत आरण्य में रहने वाले गवय आदि पशुओं (जिनसे खेती की हानि होती है) को आपसे भय प्राप्त हो”

इसी कारण लोग वनीय पशुओं से अपनी फसल आदि की रक्षा करने के अर्थ मसाल आदि जलाकर रखते हैं जिस कारण वन में रहने वाले पशु उनसे दूर ही रहते हैं क्योंकि सब ही प्रकार के वन में रहने वाले पशु अग्नि से भय खाते हैं और उनसे दूर ही भागते है, यह इस श्रुति का आशय है इसमें कहीं भी किसी भी जीव को मारना कथन नहीं किया है, क्योकि किसी भी प्रकार की हिंसा अधर्म होने से वेद विरुद्ध है, यह बात दयानंदीयों को भी समझनी चाहिए, जबकि दयानंद ने अपने वेदभाष्य में अपने लाडले शिष्यों को खुली छूट दे दी कि जो पशु तुम्हारे लिए लाभकारी नहीं है उन्हें मार दो, और यह अर्थ स्वामी जी से किसी भूलवश नहीं हुआ, स्वामी जी अपने अन्य लेखों में भी पशुहिंसा का समर्थन कर चुके हैं देखिये जैसे सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण के पृष्ठ १४६ में लिखा है कि “मांस के पिण्ड देने में तो कुछ पाप नहीं”

पृष्ठ संख्या १७२ में लिखा है कि “यज्ञ के वास्ते जो पशुओं की हिंसा है सो विधिपूर्वक हनन है”

पृष्ठ संख्या ३०२ में है कि “कोई भी मांस न खाएँ तो जानवर, पक्षि, मत्स्य और जल इतने है, की उनसे शत सहस्र गुने हो जाएं, फिर मनुष्यों को मारने लगें और खेतों में धान्य ही न होने पावे फिर सब मनुष्यों की आजीविका नष्ट होने से सब मनुष्य नष्ट हो जाएं”

पृष्ठ ३०३ में लिखा है कि “जहाँ जहाँ गोमेधादिक लिखे हैं वहाँ वहाँ पशुओं में नरों का मारना लिखा है और एक बैल से हजारों गैया गर्भवती होती है, इससे हानि भी नहीं होती और जो बन्ध्या गाय होती है उसको भी योमेघ में मारना क्योकि बन्ध्या गाय से दुग्ध और वत्सादिको की उत्पत्ति होती नहीं”

पृष्ठ ३६६ में लिखा है कि “पशुओं को मारने में थोड़ा सा दु:ख होता हैं परन्तु यश में चराचर का अत्यन्त उपकार होता है”

यह सब बातें सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण में स्वामी जी ने ही लिखी है जिसे बाद में सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण में संशोधन कर यह कहकर हटा दिया गया, कि यह बातें लिखने व छापने वालों की गलती से छप गई थी,


निम्न लेख को पढ़कर विद्वान लोग सम्यक् समझ सकते हैं कि दयानंद जी धर्म के फैलाने वाले थे या फिर अधर्म के, और सुनिये आगे अध्याय १५ मंत्र १५ में  दयानंद लिखते हैं कि--


 
अयं पुरो हरिकेशः सूर्यरश्मिस् तस्य रथगृत्सश् च रथौजाश् च सेनानीग्रामण्यौ। पुञ्जिकस्थला च क्रतुस्थला चाप्सरसौ दङ्क्ष्णवः पशवो हेतिः पौरुषेयो वधः प्रहेतिस् तेभ्यो नमो ऽ अस्तु ते नो ऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश् च नो द्वेष्टि तम् एषां जम्भे दध्मः॥ ~यजुर्वेद {१५/१५}

“जो (अयम्)- यह, (दङ्क्ष्णवः)- मांस और घास आदि पदार्थों को खानेवाले पशु आदि उनके ऊपर, (हेति:)- बिजुली गिरे,,,,, (य:)- जो, (न:)- हमसे, (द्वेष्टि)- विरोध करें, (तम्)- उसको हम लोग, (एषाम्)- इन व्याघ्रादि पशुओं के, (जम्भे)- मुख में, (दध्म:)- स्थापन करें”

समीक्षक-- दयानंद की हिंसक बुद्धि देखें दयानंद लिखते हैं कि (दङ्क्ष्णवः)- मांस और घास आदि पदार्थों को खानेवाले पशु आदि उनके ऊपर, (हेति:)- बिजुली गिरे, दयानंद ने यहाँ पशुहिंसा को भी धर्म का अंग बना दिया, धन्य है स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि, अब दयानंदी हमें ये बताए भला इन जीवों पर बिजुली क्यों गिरनी चाहिए, और भला ईश्वर इन जीवों पर बिजुली क्यों गिराने लगे? जिनकी सृष्टि उसी के द्वारा की गई है, यदि ये जीव संसार के लाभकारी न होते तो भला ईश्वर उनकी सृष्टि क्यों करता? और दयानंद तो घास खाने वाले अहिंसक जीवों तक को मारना लिखते है, दयानंदी  बताए, भला घास खाने वाले जीवों से संसार की क्या हानि है? उनके ऊपर बिजुली क्यों गिरनी चाहिए? मुझे तो नहीं लगता कि इस संसार में कोई भी ऐसा जीव है जो संसार के लिए हानिकारक है, यदि ऐसा होता तो ईश्वर उसकी सृष्टि ही नहीं करता, इस जगत् में प्रत्येक जीव एक दूसरे पर निर्भर है, और ऐसे में यदि एक जीव की नस्ल भी खत्म हो जाए तो पुरा जीवन क्रम ही बिगड जाए यही नही, इसी श्रुति में फिर आगे लिखा है कि--

(य:)- जो, (न:)- हमसे, (द्वेष्टि)- विरोध करें, (तम्)- उसको हम लोग, (एषाम्)- इन व्याघ्रादि पशुओं के, (जम्भे)- मुख में, (दध्म:)- स्थापन करें,

धन्य हे! स्वामी जी बुद्धि, स्वामी जी को तो अपने लिखें लेख भी स्मरण नहीं रहते देखिये सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में पृष्ठ १३७ पर स्वामी  जी यह लिखते हैं कि "ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और न परमेश्वर उस को स्वीकार करता है कि जैसे हे परमेश्वर! आप मेरे शत्रुओं का नाश, मुझ को सब से बड़ा, मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरे आधीन सब हो जाये इत्यादि,


स्वामी जी के इस भाष्य से तो स्वामी जी जी का ही मत खंडित होता है, अब यदि ईश्वर ऐसी प्रार्थना को स्वीकार नहीं करता तो इससे यही सिद्ध होता है कि दयानंद का यह भाष्य अशुद्ध है, अब दयानंदी स्वयं इस बात का निर्णय करें कि इसमें से कौन सी बात सही है, दयानंद का यह वेदभाष्य या फिर सत्यार्थ प्रकाश में लिखा यह लेख!

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3 comments

  1. कहने का तात्पर्य यह है कि दयानंद श्लोक के अर्थ का अनर्थ कर दिया

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    1. Tum ek number ke murkh aadmi ho jinko vyakaran ka gyan nahi hota hai bo aisi hi baat likhte hai

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  2. तुम सिर्फ झूठे हो सत्यार्थप्रकाश म ऐसा कहीं नहीं ह,मच्छर भी नहीं मारते होगे वैसे तुम?

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