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थियोसोफिकल सोसायटी आफॅ द आर्य समाज | Theosophical Society of the Arya Samaj

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इतिहास साक्षी है कि जब-जब इस भारतवर्ष की अखंडता और इसकी सनातन संस्कृति को शत्रुओं ने नष्ट करने का प्रयास किया है और सफल हुए तो उसके पीछे हमारे अपने जयचंद जैसे गद्दारों की बहुत बड़ी भूमिका रही है ऐसे ही एक व्यक्ति थे स्वामी दयानंद जिनका उद्देश्य था किसी भी प्रकार से सनातन धर्म को तोड़ एक नये धर्म की स्थापना करना, परन्तु यह कार्य इतना सरल न था, क्योकि उस समय तक न तो स्वामी जी को कोई जानता ही था और न ही स्वामी जी के पास इतनी क्षमता थी कि वह अपने इस स्वप्न को पूरा कर सकें, इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि स्वामी जी द्वारा चलाया नवीन मत सभी प्राचीन मतों से भिन्न था, जिसमें स्वामी जी ने ईसाइयों की भांति सनातन कर्मकांडों का निषेध व्रत, पूजापाठ, अवतारादि का विरोध और इसके अतिरिक्त ईसाइयों की भांति स्वामी जी ने एक वेश्याधर्म चलाया जिसमें एक स्त्री पुरुष के ग्यारह पुरूष स्त्रीयों तक नियोग करने जैसा निंदित कर्म शामिल था, स्वामी जी का यह मत भारतवर्ष में व्याप्त सभी मतों से पूर्णतः भिन्न था सिवाय ईसाई मत के, यह दोनों ही मत भारत में नवीन थे, और दोनों ही मत भारत में अपने पैर पसारने के लिए एक सुनहरे अवसर की प्रतीक्षा में थे, अब क्योकि उस समय भारतवर्ष पर ईसाइयों शासकों अर्थात अंग्रेजों का राज था, और क्योंकि दयानंद के अंग्रेजों के साथ अच्छे सम्बन्ध थे (जो थियोसोफिस्ट पत्र में छपे कुछ लेखों से सिद्ध होता है इसकी चर्चा हम आगे करेंगे) सो स्वामी जी ने अपने मत प्रचार हेतु ईसाई मिशनरीयों की सहायता लेने का निश्चय किया,


उस समय स्वामी दयानंद भारत में ईसाई मिशनरी के एकमात्र सबसे बड़े ऐजेंट के रूप में सामने आये, आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नही है, आप लोगों ने सही सुना स्वामी दयानंद भारत में ईसाई मिशनरी के सबसे बड़े दल्लों में से एक थे, स्वामी दयानंद न केवल थियोसोफिकल सोसायटी के अहम सदस्य थे, बल्कि थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापकों को पत्र लिखकर उन्हें भारत में लाने वाले भी दयानंद ही थे, १८७८ से लेकर अपनी मृत्यु १८८३ तक स्वामी जी ने इस ईसाई मिशनरी सभा के साथ मिलकर न केवल कार्य किया, बल्कि भारत में ईसाई धर्म के फलने फूलने के लिए पैर जमाने के लिए अच्छा खासा मंच तैयार करके दिया, स्वामी दयानंद कब और कैसे थियोसोफिकल सोसायटी के साथ जुड़े? अब आपको विस्तार में बताते हैं,


सन् १८७५ में जब दयानंद अपने नवीन मत का प्रचार करने काशी पहुँचे, उन्हीं दिनों, मैडम हैलना पैट्रोवना ब्लैवाटस्की और कर्नल हेनरी स्टील आल्काट नामक दो ईसाई मिशनरी सभा के धर्म प्रचारक भी अपने मत प्रचार में लगे हुए थे, यह बात जब स्वामी दयानंद के कानों तक पहुंची, तो वह उनसे मिले बिना न रह सकें और मन में मिलने की इच्छा लिए उनके सम्मुख पहुंचे, स्वामी दयानंद उनके कार्यों की प्रशंसा करते हुए, उनके सामने साथ मिलकर काम करने का प्रस्ताव रखा और उन्हें मुम्बई आने का निमंत्रण दिया, मैडम ब्लैवाटस्की और कर्नल आल्काट उनका प्रस्ताव स्वीकार कर उनके साथ मुम्बई पहुंचे, उसके कुछ समय पश्चात स्वामी दयानंद ने १० अप्रैल १८७५ में यहाँ आर्य समाज की स्थापना की, जिसके बाद दोनों वापस न्यूयॉर्क के लिए निकल गयें, न्यूयॉर्क पहुँचकर मैडम ब्लैवाटस्की और कर्नल आल्काट ने १७ नवंबर १८७५ में ईसाई मिशनरी सभा अर्थात थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना की,

उसके बाद पुनः कर्नल और मैडम सन् १८७५ ई• की १७ वीं दिसंबर को अमेरिका के न्यूयॉर्क नगर से चलकर लंदन में २ सप्ताह यापन करकें सन् १८७६ के फरवरी मास की १६ वीं तारीख को मुम्बई में आकर उपस्थित हुए, उसके पश्चात वहाँ कुछ दिन ठहर कर सहारनपुर चले गये,


(The Theosophist Vol 1. P 1., देवेन्द्रबाबु लिखित दयानंदचरित, पृष्ठ २७३)


उन दिनों स्वामी जी पंडित कृपाराम शास्त्री से भेंट करने के लिए देहरादून आये हुए थे, लेकिन जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि मैडम ब्लैवाटस्की और कर्नल आल्काट सहारनपुर आए हुए हैं तो उन्होंने तुरंत देहरादून से सहारनपुर के लिए प्रस्थान किया, मैडम और कर्नल को लेकर स्वामी जी सहारनपुर से मेरठ आए, मेरठ में उनके रहने के लिए स्वतंत्र प्रबंध हो गया, माई मास की पांचवी तारीख को कर्नल आल्काट ने छेदीलाल की कोठी में एक वक्तृता दी, इस प्रकार कई एक दिन स्वामी जी के किसी-किसी विषय में विगतसंशय होकर कर्नल और मैडम दयानंद जी की किसी बात पर क्रोधित होकर मेरठ छोड़कर चले गए, उनके चले जाने पर दयानंद कुछ दिनों मेरठ में ही रहे, पर उन दिनों उन्होंने कोई व्याख्यान या वक्तृता नहीं दी,


उसके बाद दयानंद ने थियोसोफिकल सोसाइटी को कई पत्र लिखे, और अंत में १३ अप्रैल १८७८ में स्वामी दयानंद ने थियोसोफिकल सोसायटी को पत्र लिखकर थियोसोफिकल सोसायटी से यह निवेदन किया कि वह अपना प्रधान कार्यालय न्यूयॉर्क से मुम्बई ले आए,


उसके जबाव में थियोसोफिकल सोसायटी की तरफ से जबाव में जो पत्र आया वो आपको दिखाते है उसमें लिखा था—

The Theosophical Society, New York, May 22nd 1878.
To the Chief of the Arya Samaj.
HONOURED SIR,

You are respectfully informed that at a meeting of the Council of the Theosophical Society, held at New York on the 22nd of May 1878, the President in the chair upon motion of Vice-President A. Wilder seconded by the corressponding Secre tary H. P. Blavatsky, it was unanimously resolved that the society accept the proposal of the Arya Samaj, to unite with itself, and
that the title of this Society be changed to
" The Theosophical Society of the Arya Samaj of India. *

Resolved, that the Theosophical Society for itself and branches in America, Europe and else-where, hereby recognize Swami Dayanand Saraswati, Pandit, Founder of the Arya Samaj, as its lawful Director or Chief.
Awaiting the signification of your approval and any instructions that you may be pleased to give.
I am, honoured sir, by order of the Council,
Respectfully yours,

                   (Sd.) AUGUSTUS GOSTAM,
                     Recording Secretary

(स्त्रोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND: Swami Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं देवेन्द्रबाबु रचित 'दयानंद चरित', पृष्ठ २७५,२७६)



जिसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है—

थियोसोफिकल सोसाइटी, न्यूयॉर्क मई २२, सन् १८७८ ई•
सेवा में प्रधान आर्य समाज

     माननीय महोदय ! आपको विनयपूर्वक सूचना दी जाती है कि थियोसोफिकल सोसाइटी की कौन्सिल के एक अधिवेशन में, जो न्यूयॉर्क में २२ मई १८७८ को सामयिक प्रधान के सभापतित्व में संघटित हुई हुआ ए• वाइल्डर साहब उपसभापति के प्रस्ताव और पत्रव्यवहार कर्ता मन्त्री एच• पी• ब्लैवाटस्की के अनुमोदन पर सर्वसम्मति  से निर्धारित हुआ है कि यह सभा आर्य समाज के इस प्रस्ताव को कि सभा  उक्त समाज के साथ मिल जावे और इस समाज का नाम परिवर्तित करके "भारतवर्षीय आर्य समाज की थियोसोफिकल सोसाइटी" रखा जावे स्वीकार करती है,
यह भी निश्चय हुआ कि थियोसोफिकल सोसाइटी अपनी और अपनी शाखाओं की ओर से जो अमेरिका, यूरोप और अन्य प्रदेशों में हैं, स्वामी दयानंद सरस्वती पंडित, संस्थापक आर्य समाज को अपना नियमानुकूल अधिनायक मानती है,

        आपकी स्वीकारी की सूचना और किन्हीं सुझावों की जो आप देवें प्रतीक्षा करता हुआ"
मैं हूँ, माननीय महोदय, कौन्सिल की आज्ञानुसार

                                                         आपका
                                             (हस्ताक्षर) आगस्टम गस्टम,

                                         रिकॉर्डिंग सेक्रेटरी - (अनुवादक)

 (स्त्रोत- LIFE & TEACHINGS OF SWAMI DAYANAND: Swami Dayanand and Theosphists- P. 162,163, एवं देवेन्द्रबाबु रचित 'दयानंद चरित', पृष्ठ २७५,२७६)



पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि यह सभा आर्य समाज के इस प्रस्ताव को कि  सभा (अर्थात थियोसोफिकल सोसाइटी) उक्त समाज (अर्थात आर्य समाज) के साथ मिल जावें और इस सभा का नाम परिवर्तित करके "Theosophical Society of the Arya Samaj" रखा जावें स्वीकार करती है,

उक्त पत्र से यह साफ हो जाता है कि किस प्रकार स्वामी जी ईसाई मिशनरी सभा से निवेदन कर रहे हैं कि आओं आर्य समाज के जमाता हमारे साथ मिल कर भारतीय सनातन संस्कृति को नष्ट करने में मेरी सहायता करें, और अपने मत का प्रचार कर नास्तिकवाद को बढ़ाने में आर्य समाज का सहयोग करें,

स्वामी दयानंद के निमंत्रण पर फरवरी १८७९ में सोसाइटी का प्रधान कार्यालय न्यूयार्क से मुम्बई में लाया गया, और आर्य समाज कार्यालय का नाम बदल कर "थियोसोफिकल सोसायटी आफॅ द आर्य समाज (Theosophical Society of the Arya Samaj)" रखा गया।


उसके बाद आरंभ हुआ इनका असली खेल, आर्य समाज और थियोसोफिकल सोसाइटी दोनों ने मिलकर एक साथ सनातन धर्म पर आघात किया, इसका परिणाम यह हुआ कि सनातनधर्मीयों के बीच मतभेद उत्पन्न होने लगें, जिसका सबसे ज्यादा लाभ थियोसोफिकल सोसायटी को मिला, १८७९ से लेकर १८८३ तक दयानंद की सहायता से यह सभा (थियोसोफिकल सोसाइटी) लाखों सनातनधर्मीयों को ईसाई मत की ओर ले जाने में सफल रही,


दयानंद के लिए अंग्रेजी शासन किसी स्वर्ण युग से कम न था, उनके अनुसार उन्होंने सनातन धर्म के विरुद्ध जितना विष उगला यदि अंग्रेजों ने उनकी रक्षा न की होती तो जरूर कोई न कोई उन्हें मरवा डालता


१८८० के थियोसोफिस्ट पत्र के एक लेख में स्वामी जी  बताते हैं कि "यदि अंग्रेजी राज्य न होता तो मैं जो इतनी बार फर्रूखाबाद आया, ब्राह्मण मुझे कभी जीवित न छोड़ते, किसी से मरवा डालते"


पाठकगण ! के मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि आखिर अंग्रेजी सरकार दयानंद पर इतनी मेहरबान क्यों थी, तो इसका जबाव है- ‘डिवाइड एंड रूल’: अंग्रेज़ों की नीति "महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचन्द्र बोस ने अंग्रेजों की नीति का तीन शब्दों में खुलासा करते हुए लिखा है- डिवाइड एंड रूल अर्थात फूट डालो और राज करो"

स्वामी दयानंद यही कर रहे थे, उनके नवीन मत प्रचार से सनातन धर्म में बिखराव की स्थिति उत्पन्न होने लगी थी, और अंग्रेजों की तो शुरू से यही नीति रही थी, जिसे स्वामी दयानंद ने और आसान बना दिया, स्वामी दयानंद आखिर ऐसा क्या कर रहे थे देखें—

दयानन्द सरस्वती के बारे में क्वीन्स कॉलेज के प्राचार्य रुडॉल्फ होर्नले (Rudolf Hoernley) ने यह बात लिखी—

"दयानन्द हिंदुओं के मन में यह बात भर देना चाहते हैं कि आज का हिंदूधर्म, वैदिक हिन्दू धर्म के पूर्णतया विपरीत है, और जब यह बात हिन्दुओं के मन में बैठ जायेगी तो वे तुरंत हिंदूधर्म का त्याग कर देंगे; पर तब दयानन्द के लिए उन्हें वैदिक स्थिति में वापस ले जाना सम्भव न होगा, ऐसी स्थिति में हिंदुओं को एक विकल्प की खोज होगी जो उन्हें हिंदू से ईसाई धर्म की ओर ले जायेगी"


स्रोत: The Christian Intelligence, Calcutta, March 1870, p 79 and A F R H quoted in The Arya Samaj by Lajpat Rai, 1932, p 42 quoted in Western Indologists A Study in Motives.htm, Purohit Bhagavan Dutt


 
दयानंद की बनाईं "थियोसोफिकल सोसायटी आफॅ द आर्य समाज" इसी प्रकार कार्य करती, दयानंद हिन्दुओं के मन मे ये बात भर देते थे कि आज का हिन्दू धर्म, वैदिक हिन्दू धर्म के पूर्णतया विपरीत है, और जब यह बात हिन्दुओं के मन में बैठ जाती तो ऐसे में उनमें से कुछ तो आर्य समाज से जुड़ जाते और बाकीयों को थियोसोफिकल सोसायटी के धर्म प्रचारक ईसाई बना देते, अब क्योकि "थियोसोफिकल सोसायटी आफॅ द आर्य समाज" एक साथ काम करती थी इसलिए बदले में दयानंद को भी बिना किसी रोक टोक के भयमुक्त होकर अपना नवीन मत फैलाने हेतु ब्रिटिश सरकार का पूरा सहयोग मिलता था।


पाठकगण ! विचार करें यदि दयानंद का काम वैदिक धर्म का प्रचार ही था तो क्या दयानंद को पुरे भारतवर्ष में कहीं वैदिक लौग नहीं मिलें, जो वे ईसाइयों के सामने गिडगिडा रहे थे, आखिर दयानंद ने उस गौभक्षक ईसाई मिशनरी सभा में ऐसे कौन से वैदिक गुण देख लिए जो उन्हें सनातनधर्मीयों मे न दिखें, दरअसल स्वामी जी स्वार्थ, अंहकार और द्वैषाग्नि में इतने अंधे हो चुके थे कि अपने स्वार्थपूर्ति के लिए वो किसी भी स्तर तक गिर सकते थें वर्ना दयानंदी जबाव दें कि यदि दयानंद का मन साफ था तो उन्होंने  सनातनधर्मीयों के साथ मिलकर वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार क्यों नहीं किया? और उस गौभक्षक ईसाई मिशनरी सभा में ऐसा क्या देख लिया? जो ना तो वैदिक धर्मि थे और ना ही इस भारतभूमि के, फिर ऐसा क्या कारण था जो थियोसोफिकल सोसाइटी को भारत में बुलाने व उसका हिस्सा बनने के लिए उनकी लार टपक रही थी? ऐसा करते हुए क्या दयानंद को तनिक भी लज्जा न आई? उन्होंने एक बार भी यह नहीं सोचा की विद्वान लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे?


आर्य समाज किस प्रकार थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़ा हुआ था यदि यह जानना हो तो आप गूगल पर जाकर सिर्फ इतना टाइप कर दीजिए "Theosophical Society of the Arya Samaj" आपको आपकी सभी बातों का जवाब मिल जाएगा और यदि इसमें अब भी  किसी प्रकार कोई संदेह रह गया हो कि दयानंद थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य थे या नहीं तो वो जाकर दयानंद की १८८२ में तैयार कराई वसीयत के बारे में पढे, दयानंद ने अपनी वसीयत जो कि उन्होंने मेरठ में पंजीकृत कराईं थी जिसमें कुल १८ लोग थे जिन्हें दयानंद ने अपनी अंत्येष्टि करने तथा निजी वस्त्र, पुस्तक, मंत्रालय आदि का अधिकार दिया था उसमें थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल आल्काट और मैडम ब्लैवाटस्की का भी नाम है


मुझे लगता है अपनी बात को सिद्ध करने के लिए अब मुझे और कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है दयानंद की ये वसीयत ही ये सिद्ध कर देती है ईसाई मिशनरीयों के साथ दयानंद के कितने अच्छे और गहरे संबंध थे जो काम ईसाई मिशनरी पिछले १५० सालों में न कर सकी दयानंद के समर्थन से मात्र ५ वर्षों मे ईसाई मिशनरी के धर्म प्रचारको ने लाखों सनातनीयों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें ईसाई बनाया बडे आश्चर्य कि बात है कि स्वंय को वैदिक कहने वाले दयानंद को ईसाई मिशनरीयों के साथ मिलकर काम करने में तो कोई परहेज नही था पर अपने हिन्दु भाई आँखों मे खटकते थें ऐसा शायद इसलिए क्योकी स्वामी दयानंद और ईसाई मिशनरी सभा का उद्देश्य एक ही था किसी भी प्रकार सनातन संस्कृति को पुरी तरह से समाप्त करना शायद यही कारण रहा कि दयानंद ने अपने तथाकथित ग्रंथ के प्रथम संस्करण में १८७५ से लेकर १८८३ तक केवल सनातन धर्म की ही आलोचना की है ईसाई या मुस्लिम मत के विरुद्ध एक शब्द नहीं लिखा।

ये लेख उन मूर्खों के मुहँ पर तमाचा है जो दयानंद को वैदिक धर्म का प्रचारक और हिन्दुओं का हितैषी बोलते हैं जबकि सत्य तो यह है कि दयानंद जैसा स्वार्थी, निच , कपटी और गद्दार व्यक्ति जो अपने देश, धर्म अपने भाई बंधुओं का नहीं हुआ पूरे संसार में नहीं मिलेगा जीवन पर्यन्त दयानंद का केवल एक ही उद्देश्य रहा सनातन धर्म को तोड के एक नया धर्म बनाना,
 

 

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